कोयलांचल के गांधी काजल की कोठरी में भी बेदाग रहे , नेताओं में ईमानदारी के मिशाल रहेंगें ए.के राय

Jharkhand झारखण्ड



कोयलांचल के गांधी कामरेड ए.के राय

धनबाद: हमने तो गांधी को नहीं देखा है लेकिन कोयलांचल के गांधी को देखकर ही बड़े हुए हैं।
कोयलांचल में जहां कोयले की काली कमाई के लिये भाई-भाई की हत्या करा देता है वहीं राजनीति के गांधी कामरेड ए.के राय साहब भी रहा करते थे। लेकिन कोयले की कोठरी में रहते हुए भी ए.के. राॅय आजीवन बेदाग रहे। भले ही राजनीति के आयाम बदल गये हो और गांधीवाद की बातें नेताओं के भाषण में आप सुनते हो लेकिन गांधीवादी तरीके से जीने और राजनीति करने के लिये कोयलांचल ही नहीं पूरे झारखंड में ए.के. राय का नाम हमेशा लिया जायेगा। तीन बार धनबाद से सांसद और तीन बार सिंन्दरी विधानसभा से विधायक होने के वावजूद ए.के. राॅय ने पेंशन लेने से मना कर दिया था। ए.के. राय ने राजनीति समाज के लिये करने के कारण ही अपनी शादी नहीं की । कॉमरेड एके राय का निधन हो गया है. धनबाद के केंद्रीय अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. वे खुद से सांस नहीं ले पा रहे थे. पिछले कुछ वर्षों से वे बोलने की स्थिति में नहीं थे, लेकिन वे साथ बैठते थे. मौन भाव से सब कुछ सुनते रहते थे. हां, उनके चेहरे पर एक सात्विक मुस्कान हर वक्त तैरती रहती थी. वह मुस्कान अब उनके होठों पर नहीं रह गई थी. उनके चाहने वाले दुआ कर रहे थे कि वे जल्द स्वस्थ हों. इसलिए नहीं कि वे फिर से राजनीति में लौटें. ये तो किसी भी हालत में संभव नहीं था. सिर्फ इसलिए कि उनकी उपस्थिति की वजह से समाज में एक शुचिता और संघर्ष का भाव होता है. लगता है कि नेता ऐसे भी हो सकते हैं. कॉमरेड राय पिछले कुछ वर्षों से राजनीति के हाशिये पर चले गये थे. कुछ तो अपनी उम्र और स्वास्थ्य की वजह से और कुछ झारखंड की बदलती राजनीति की वजह से. वे धनबाद लोकसभा सीट से तीन बार सांसद रहे हैं और झारखंड के एक प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में आज स्थापित झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन में शिबू सोरेन और स्व. विनोद बिहारी महतो के साथ उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी. फरवरी 1973 में धनबाद के जिस गोल्फ मैदान में झामुमो के गठन की ऐतिहासिक घोषणा हुई थी, उसकी बुनियाद ‘लाल-हरे की मैत्री’ थी. इसमें लाल रंग कॉमरेड राय लेकर आए थे. हालांकि वे पेश से इंजीनियर रहे, लेकिन बाद में पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता बन गए.

इमरजेंसी में एके राय, शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो, तीनों जेल में बंद हुए. शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो तो जल्दी ही जेल से निकल आये थे, लेकिन कामरेड राय पूरी इमरजेंसी जेल में रहे और जेल में रह कर ही इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के संसदीय चुनाव में धनबाद से जीत कर पहली बार सांसद बने थे….कॉमरेड राय 60 के दशक से झारखंड की राजनीति में सक्रिय रहे. आज के पतनशील राजनीति के दौर में उन गिने-चुने राजनेताओं में थे, जिनकी सफेद चादर जैसे निर्मल व्यक्तित्व पर एक भी बदनुमा दाग नहीं. जिनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और सामाजिक सरोकारों की निष्ठा पर कोई संदेह नहीं कर सकता. चरम विरोधी भी नहीं. लेकिन ईमानदारी उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा भर थी. वैसे भी, यह व्यक्तिगत ईमानदारी किसी काम की नहीं होती यदि उनमें वैचारिक उष्मा और आदिवासी, दलित जनता के प्रति गहरी प्रतिद्धता सन्निहित नहीं होती. वैचारिक उष्मा का मतलब यह कि कॉमरेड राय झारखंड के पुनर्निर्माण की एक मुकम्मल दृष्टि रखने वाले बिरले नेताओं में थे, जो न्याय के पक्षधर हैं और उसके लिए जिन्होंने संघर्ष किया है.

आदिवासी जनता के प्रति उनकी प्रतिद्धता का सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि मार्क्सवादी होते हुए भी उन्होंने उस दौर में झारखंड के अलग राज्य की मांग का समर्थन किया जब लगभग सभी वामदल इस मांग का विरोध करते थे. राय न सिर्फ इस मांग का समर्थन करते थे, बल्कि झारखंड को समाजवादी आंदोलन के लिए उर्वर भूमि मानते थे. उनका कहना था कि आदिवासी से अधिक सर्वहारा आज की तारीख में है कौन?

अक्सर वे कहा करते थे कि झारखंड की असली ऊर्जा है झारखंडी भावना. इसीलिए तमाम झारखंडी नेताओं को खरीद कर भी झारखंड आंदोलन समाप्त नहीं किया जा सका और अंत में अलग झारखंड राज्य का गठन करना पड़ा. अलग राज्य के रूप में झारखंड के गठन के पूर्व भी इस क्षेत्र का विकास हुआ था. बहुत सारे उद्योग धंधे लगे थे. सार्वजनिक क्षेत्र में लगी कुल पूंजी का बड़ा भाग इसी राज्य में लगा. सिंदरी एफसीआई, बोकारो स्टील प्लांट, एचईसी, बीसीसीएल, सीसीएल, डीवीसी आदि पीएसयू इसके उदाहरण हैं. लेकिन तमाम विकास बाहर से आये. विकसित लोगों का चारागाह बनता रहा. झारखंडियों का विकास नहीं हुआ, बल्कि उन्हें विस्थापन, उपेक्षा और शोषण का शिकार होना पड़ा.

राय दा यानी एके राय। उमर 84 साल। न आगे नाथ न पीछे पगहा। अटल बिहारी वाजपेयी की तरह विवाह नहीं किया। न जमीन न जायदाद न बैंक बैलेंस। अब बोलने की भी क्षमता नहीं। मगर जब बोलते थे तो उनकी गरज के आगे धनबाद के माफिया नतमस्तक हो जाते थे। क्योंकि वे जो बोलते थे, वही करते थे।
90 के दशक में लोकसभा में सांसदों के लिए वेतन और पेंशन का प्रस्ताव आया था। एके राय ने आपत्ति की। पश्चिम बंगाल के एक वामपंथी सांसद ने उनका साथ दिया, वह भी उतनी गर्मजोशी से नहीं। एके राय ने तर्क दिया कि लोग सांसद को सेवा के लिए चुनते हैं, वे सेवक नहीं है जो उन्हें वेतन या पेंशन दिया जाय। एके राय की आपत्ति पर भी सदन में बहुमत की राय के आधार पर सांसदों को वेतन, फिर पेंशन देने पर सहमति बन गई। एके राय जुबान के पक्के। न वेतन लिया न पेंशन। पेंशन की राशि राष्ट्रपति कोष में डालने पर स्वीकृति दे दी। आज वे झरिया के नजदीक नुनूडीह में एक कॉमरेड के क्वार्टर में रहते हैं। बीमार हैं। जिन लोगों ने कभी ए के राय का सिर्फ भाषण सुना था, उनके कामकाज को देखा था। और कोई मतलब नहीं। वैसे नागरिक ए के राय के जीवन यापन के लिए आर्थिक सहयोग देते हैं, कुछ लोग उनकी सेवा करते हैं।

धनबाद की पहचान कोयला माफिया की नगरी के नाते हैं। कोयलांचल में जब कोयला माफिया का बोलबाला था, उस दौर में ए के राय सांसद चुने गए थे। तीन बार। यह बात सत्य है कि ए के राय सार्वजनिक मंच से माओवादियों के कारनामे का समर्थन करते थे। फिर भी धनबाद के मजदूर उन्हें राजनीति के संत के नाते देखते हैं। संत जैसा जीवन है उनका। 15 वर्ष पहले पैरालिसिस का शिकार हो गए। मधुमेह के कारण सेहत गिरती गई। चेहरे पर तेज और समाजसेवा का जुनून आज भी उनकी आंखों में दिखता है। कमरे में एक तख्त, कुछ किताबें, अखबार और एक कोने में रखे हुए लाल झंडे ही जीवन भर की पूंजी हैं। जबसे सार्वजनिक जीवन में आए, तब से जमीन पर चटाई बिछा कर सोते रहे। खाने को कुछ भी मिल जाय, कोई आपत्ति नहीं। सिर्फ दही अनिवार्य। वामपंथ के प्रति इतना समर्पण कि आज बोल नहीं पाते, चलने में दिक्कत है। मगर जब कोई सामने दिख जाय तो खुद ब खुद लाल सलाम का इशारा करने के लिए हाथ उठ जाते हैं, बंधी हुई मुट्ठियों के साथ।

एके राय ने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत माकपा से की थी। तब कुछेक नेता कार में घूमते थे। कुछ माकपा नेता भी कार की सवारी करते थे। एके राय ने अखबार में लेख लिख कर इस पर आपत्ति की। तर्क था कि जब बड़ी आबादी के पास न भोजन है न वस्त्र तो फिर वामपंथ को मानने वालों की यह जीवन शैली आदर्श नहीं हो सकती। एके राय को इस तथाकथित गलती के लिए पार्टी से नोटिस भेजी गई। ए के राय ने माकपा को अलविदा कह दिया। माक्र्सवादी समन्वय समिति बनाई। ऐसा दल जिसमें सभी दलों के बढिया नेताओं के लिए जगह थी। एके राय की देखभाल करने वाले मासस कार्यकर्ता सबूर गोराई बताते हैं कि एके राय आदर्श पुरुष हैं। सांसद थे तब भी सामान्य डिब्बों में सफर करते थे। आदिवासियों के गांवों में जाते थे तो उनका हाल देख रो पड़ते थे। कहते थे कि इन गरीबों पर मुकदमा हो जाए तो पुलिस तुरंत पकड़ती है। माफिया के लिए वारंट निकलते हैं, तो भी धन बल के कारण आराम से घूमते हैं।

सबूर गोराई कहते हैं, एके राय के तीन भाई और एक बहन है। पक्षाघात के कारण तबियत बहुत बिगड़ गई तो कोलकाता में रहने वाले भाई तापस राय आए। वे एके राय को कोलकाता ले जाना चाहते थे। दादा ने कैडरों को नहीं छोड़ा।

बंगलादेश में जन्म, यूनियन लीडर बने तो छोड़ दी नौकरीः कामरेड एके राय का जन्म 15 जून 1935 में बंगलादेश के राजशाही जिले के सापुरा गांव में हुआ था। 1961 में सिंदरी में भारत सरकार के उपक्रम पीडीआइएल (प्रोजेक्ट एंड डेवलपमेंट इंडिया लिमिटेड) में नौकरी लगी। बतौर अभियंता। उसी कारखाने में मजदूरों के शोषण पर दुखी हो गए। नौकरी छोड़ दी। ट्रेड यूनियन बना लिया। ट्रेड यूनियन से सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने के बाद 1977, 80 व 89 में धनबाद के सांसद रहे। 1967, 69 व 72 में सिंदरी से विधायक रहे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *