गिरिश कर्नाड नहीं रहे

Jharkhand झारखण्ड

गिरीश रघुनाथ कर्नाड बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कलाकार थे । वे अभिनेता, फिल्म निर्देशक, कन्नड़ लेखक व नाटककार थे ,। इन्होंने दक्षिण भारतीय सिनेमा और बॉलीवुड में काम किया है । 1960 के दशक में नाटककार के रूप में इनकी पहचान कन्नड़ में आधुनिक भारतीय नाटकार के रूप में बननी शुरू हुई। इन्होंने कन्नड़ भाषा के नाटकों में वैसी ही ख्याति हासिल की जैसे बादल सरकार ने बंगाली में, मराठी में विजय तेंदुलकर और हिंदी में मोहन राकेश ने।

खुद को फिल्मकार की तुलना में बेहतर नाटककार पाया

गिरिश अपने बारे में बताते हुए कहते हैं कि
मैंने खुद को फिल्मकार की तुलना में एक बेहतर नाटककार पाया है। यही वजह है कि मैं नाटक ज्यादा विश्वास के साथ लिखता हूं और इसकी शैलियों पर प्रयोग करना मेरे लिए फिल्म निर्देशन की तुलना में ज्यादा आजाद अनुभव है।
मेरा जन्म 1938 में माथेरन, महाराष्ट्र के एक संपन्न कोंकणी परिवार में हुआ था। जब मैं चौदह वर्ष का था, तब हमारा परिवार कर्नाटक के धारवाड़ में आकर रहने लगा और मैं वहीं पला-बढ़ा । कर्नाटक विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि लेने के बाद मैं आगे की पढ़ाई के लिए बॉम्बे (मुंबई) आ गया, लेकिन तभी मुझे प्रतिष्ठित रोड्स छात्रवृत्ति मिल गई और मैं इंग्लैंड चला गया, जहां मैंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के लिंकॉन तथा मॅगडेलन महाविद्यालयों से दर्शनशास्त्र, राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की।

पहले कवि बनना चाहता था

जब मैं बड़ा हो रहा था, तब मेरे परिवेश में नाटक मंडलों या नाटक कंपनियों का बोलबाला था । मेरे माता-पिता को नाटकों का शौक था । उनके साथ मैं भी नाटक देखने जाता था। यहीं से नाटकों ने मेरे मन में जगह बना ली थी। मैं बचपन से ही ‘यक्षगान’ का उत्साही प्रशंसक रहा हूं। पर बाईस की उम्र होने तक मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा कवि बनने की थी। यहां तक कि जब मैं अपना पहला और सबसे प्रिय नाटक ‘ययाति’ लिख रहा था, तब नाटकों में रुचि होने के बावजूद मैंने नाटककार बनने का नहीं सोचा था।

महिलाओं को बारीकी से समझता हूं

मेरी परवरिश दो बहनों, एक भांजी और घर के सामने रहने वाले अंकल की चार बेटियों के साथ हुई है। सात लड़कियों के साथ रहने के कारण मैं महिलाओं की सोच को बेहद बारीकी से समझता हूं। यही वजह है कि मेरे नाटकों में महिला चरित्र बिल्कुल नैसर्गिक प्रतीत होता है। मुझे भारत से इंग्लैंड पहुंचने में तीन हफ्ते लग गए थे और मैं चाहकर भी निर्धारित तीन वर्षों से पहले अपने मुल्क वापस नहीं लौट सकता था। 1963 में इंग्लैंड से वापस लौटने के बाद मैं मद्रास (चेन्नई) की ऑक्सफोर्ड प्रेस में विभिन्न प्रकार के भारतीय लेखन को सामने लाने के काम से जुड़ गया। इससे रचनात्मक कौशल को संवारने में मदद मिली।

फिल्मों से ज्यादा नाटक पसंद है

जब मैंने नाटक लिखना शुरू किया था, तब कन्नड़ साहित्य पर पश्चिम का गहरा प्रभाव था। 1970 में मैंने अनंतमूर्ति के उपन्यास पर आधारित ‘संस्कार’ से बतौर फिल्म स्क्रीनराइटर और अभिनेता शुरुआत की थी। उसके बाद मैंने कई फिल्मों के लिए काम किया, पर हमेशा से ही पसंदीदा क्षेत्र नाटक ही रहा। नाटक लिखने के दौरान इसकी शैलियों पर प्रयोग करना मेरे लिए फिल्म निर्देशन की तुलना में ज्यादा आजाद अनुभव है।

हर नाटक पर की खूब मेहनत

मैं किसी भी ऐतिहासिक कहानी पर नाटक लिखने से पहले उस विषय के विद्वानों से मिलकर नोट्स तैयार करता हूं। मुझे उन कवियों और लेखकों से नफरत है, जो एक ही जगह बैठकर अपना काम पूरा कर लेते हैं। मैंने हमेशा अपने नाटकों पर मेहनत की है। जब मैंने तुगलक लिखा, तो सोचा था कि कोई इसमें दिलचस्पी नहीं लेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मुझे समझ में आ गया कि नाटक बच्चों की तरह होते हैं, जो अपनी योग्यता के आधार पर आगे बढ़ते हैं।

फ़िल्म ‘संस्कार’ से सिने कैरियर प्रारम्भ किया
गिरीश कर्नाड केवल एक सफल पटकथा लेखक ही नहीं, बल्कि एक बेहतरीन फ़िल्म निर्देशक भी हैं। उन्होंने वर्ष 1970 में कन्नड़ फ़िल्म ‘संस्कार’ से अपने सिने कैरियर को प्रारम्भ किया था। इस फ़िल्म की पटकथा उन्होंने स्वयं ही लिखी थी। इस फ़िल्म को कई पुरस्कार प्राप्त हुए थे। इसके पश्चात श्री कर्नाड ने और भी कई फ़िल्में कीं। उन्होंने कई हिन्दी फ़िल्मों में भी काम किया था।
इन फ़िल्मों में ‘निशांत’, ‘मंथन’ और ‘पुकार’ आदि उनकी कुछ प्रमुख फ़िल्में हैं। गिरीश कर्नाड ने छोटे परदे पर भी अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम और ‘सुराजनामा’ आदि सीरियल पेश किए हैं। उनके कुछ नाटक, जिनमें ‘तुग़लक’ आदि आते हैं, सामान्य नाटकों से कई मामलों में पूरी तरह से भिन्न हैं। गिरीश कर्नाड ‘संगीत नाटक अकादमी’ के अध्यक्ष पद को भी सुशोभित कर चुके हैं।

हयवदन एक अनूठा नाट्य प्रयोग
स्त्री-पुरुष के आधे-अधूरेपन की त्रासदी और उनके उलझावपूर्ण संबंधों की अबूझ पहेली को देखने-दिखानेवाले नाटकों में कार्नाड का हयवदन, कई दृष्टियों से, निश्चय ही अनूठा नाट्य प्रयोग है। इसमें पारंपरिक अथवा लोक-नाट्य रूपों के कई जीवंत रंग-तत्वों का विरल रचनात्मक इस्तेमाल किया गया है। टामस मान की ‘ट्रांसपोज्ड हैड्स’ की द्वंद्वपूर्ण आधुनिक कहानी पर आधारित यह नाटक जिस तरह देवदत्त, पद्मिनी और किल के प्रेम-त्रिकोण के समानान्तर हयवदन के उपाख्यान को गणेश-वंदना, भागवत, नट,, मुखौटे, गुड्डे-गुड़ियों और गीत-संगीत के माध्यम से लचीले रंग-शिल्प में पेश करता है, वह अपने-आप में केवल कन्नड़ नाट्य लेखन को ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण आधुनिक भारतीय रंगकर्म की एक उल्लेखनीय उपलब्धि सिद्ध हुआ है।

पुरस्कार :

• 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
• 1974 में पद्मश्री
• 1992 में पद्मभूषण
• 1992 में कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार
• 1994 में साहित्य अकादमी पुरस्कार
• 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार
• 1998 में कालिदास सम्मान
• इसके अतिरिक्त गिरीश कर्नाड को कन्नड़ फ़िल्म ‘संस्कार’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।
टाटा साहित्य लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के लिए चुने गए

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