द्वापर काल से मनाया जाता है आदिवासियों का महान सरहुल पर्व, सरहुल के मौके पर शाम को निकलेगा जूलूस

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मुखर संवाद के लिये शिल्पी यादव की रिपोर्टः-
रांची : आदिवासी समाज का महान पर्व सरहुल द्वापर काल से ही मनाया जाता है। महाभारत काल में भी आदिवासी समाज की ओर से सरहुल पर्व मनाने की कथायें प्रचलित हैं। सरहुल पर्व से जुड़ी कई किवदंती या प्रचलित है। उनमें से ‘महाभारत‘ से जुड़ी एक कथा है। इस कथा के अनुसार जब महाभारत का युद्ध चल रहा था, तब आदिवासियों ने युद्ध में ‘कौरवों’ का साथ दिया था। जिस कारण कई ‘मुंडा सरदार’ पांडवों के हाथों मारे गए थे। इसलिए उनके शवों को पहचानने के लिए उनके शरीर को ‘साल के वृक्षों के पत्तों और शाखाओं’ से ढका गया था। इस युद्ध में ऐसा देखा गया कि जो शव साल के पत्तों से ढका गया था। वे शव सड़ने से बच गए थे और ठीक थे। पर जो दूसरे पत्तों या अन्य चीजों से ढ़के गए थे वे शव सड़ गए थे। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद आदिवासियों का विश्वास साल के पेड़ों और पत्तों पर बढ़ गया होगा। जो सरहुल पर्व के रूप में जाना गया हो।
सरहुल की शोभायात्रा आज शाम को निकलेगा। सरहुल के अनुष्ठान विधि विधान की शुरुआत हो चुकी है। सरहुल पर्व के पीछे कई परंपरा, मान्यता और विश्वास छिपा है। सरहुल के नाम का अर्थ देखें तो पायेंगे सर का अर्थ है सरई या सखुआ का फूल और हूल का अर्थ है क्रांति. इस तरह सखुआ फूलों की क्रांति को सरहुल कहा गया। इस कई भाषाओं में अलग- अलग नाम से जाना जाता है। मुंडारी, संताली और हो-भाषा में सरहुल को ‘बा’ या ‘बाहा पोरोब’, खड़िया में ‘जांकोर’, कुड़ुख में ‘खद्दी’ या ‘खेखेल बेंजा’ जबकि नागपुरी, पंचपरगनिया, खोरठा और कुरमाली में यह ‘सरहुल’ के नाम से ही जाना जाता है।

सरहुल की शुरुआत के दिन युवा केकड़ा और मछली पकड़ने के लिए निकलते हैं। इसके पीछे इनकी मान्यता है कि मछली और केकड़े ने ही समुद्र के नीचे की मिट्टी को ऊपर लाकर यह धरती बनायी है. फसल की बुवाई के समय इन नर और मादा केकड़ों का चूर्ण बीजों के साथ बोया जाता है, इस आस्था के साथ कि जिस तरह केकड़े के अनगिनत बच्चे होते हैं, उसी तरह फसल भी बड़ी मात्रा में होगी मान्यता यह भी है कि एक बार जब भयंकर अनावृष्टि हुई थी, तब मानव ने ककड़ोलता (केकड़े की रहने की जगह) में जाकर अपने प्राणों की रक्षा की थी। सरहुल पूजा के शुरूआती दिन पूरा परिवार उपवास रखता है। दूसरी बेला में पुरखों को खाना अर्पित किया जाता है जिसमें तेल के बनी चावल की रोटी, पानी और तपावन (हड़िया) दिया जाता है। इसके बाद सबसे पहले परिवार का मुखिया अन्न ग्रहन करता है। शाम को लेगभग 7 बजे के आसपास पाहन सहयोगियों के साथ जल रखाई पूजा का पानी लाने के लिए नदी, तालाब या चुआं जाते हैं। सहयोगी पानी लेकर सरना स्थल में वहां विधि-विधान के दो घड़ों में पानी रख देते हैं। पारंपरिक रीति-रिवाज से धुवन-धूप करेंगे, गोबर लीप कर स्थल को पवित्र कर दिया जाता है। मिट्टी का दीप जलाकर चावल और साल के फूल को घड़ा के जल में डाला जाता है। इसके साथ ही कई और विधि विधान होते हैं।

सरहुल पर्व के ‘पहले दिन‘ मछली के अभिषेक किए हुए जल को घर में छिड़का जाता है। ‘दूसरे दिन‘ उपवास रखा जाता है। तथा गांव का पुजारी जिसे “पाहन” के नाम से जाना जाता है। हर घर की छत पर ‘साल के फूल‘ को रखता है। तीसरे दिन पाहन द्वारा उपवास रखा जाता है तथा ‘सरना’ (पूजा स्थल) पर सरई के फूलों (सखुए के फूल का गुच्छा अर्थात कुंज) की पूजा की जाती है। साथ ही ‘मुर्गी की बलि’ दी जाती है तथा चावल और बलि की मुर्गी का मांस मिलाकर “सुंडी” नामक ‘खिचड़ी‘ बनाई जाती है। जिसे प्रसाद के रूप में गांव में वितरण किया जाता है। चौथे दिन ‘गिड़िवा’ नामक स्थान पर सरहुल फूल का विसर्जन किया जाता है।सरहुल में एक वाक्य प्रचलन में है- “नाची से बांची” अर्थात जो नाचेगा वही बचेगा। ऐसी मान्यता है कि आदिवासियों का नृत्य ही संस्कृति है। इस पर्व में झारखंड और अन्य राज्यों में जहां यह पर्व मनाया जाता है जगह-जगह नृत्य किया जाता है। महिलाएं सफेद में लाल पाढ़ वाली साड़ी पहनती है और नृत्य करती है। सफेद पवित्रता और शालीनता का प्रतीक है। जबकि लाल संघर्ष का। सफेद ‘सिंगबोंगा’ तथा लाल ‘बुरूंबोंगा’ का प्रतीक माना जाता है इसलिए ‘सरना झंडा’ में सफेद और लाल रंग होता है।
एक परंपरा के अनुसार इस पर्व के दौरान गांव का पुजारी जिसे पाहन के नाम से जानते हैं। मिट्टी के तीन पात्र लेता है और उसे ताजे पानी से भरता है। अगले दिन प्रातः पाहन मिट्टी के तीनों पात्रों को देखता है। यदि पात्रों से पानी का स्तर घट गया है तो वह ‘अकाल‘ की भविष्यवाणी करता है। और यदि पानी का स्तर सामान्य रहा तो उसे ‘उत्तम वर्षा‘ का संकेत माना जाता है। सरहुल पूजा के दौरान ग्रामीणों द्वारा सरना स्थल (पूजा स्थल) को घेरा जाता है।

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