मुखर संवाद के लिये पटना से अरूण यादव की रिपोर्टः-
पटना: बिहार विधानसभा चुनाव तो हो गये लेकिन इसमें सबसे अधिक नुकसान यादवों और मुस्लिमों का हुआ है। यादव और मुस्लिमों के विधायकों की संख्या में कमी आयी है तो वहीं कुर्मी- कुशवाहा के विधायक भी कम हुए हैं। लेकिन इसका सबसे अधिक फायदा बा्रहा्ण और वैश्यों को हुआ है सिकी जाति की संख्या काफी अधिक बढ़ गयी है। बा्रहा्ण और वैश्यों की जाति के विधायकों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है। यादव जाति के 2015 में 61 विधायक थे 2020 में 55 विधायक ही जीत सके हैं। तो वहीं मुस्लिम विधायकों की संख्या 24 2015 में थी जबकि इसबार यह संख्या घटकर 14 हो गयी है। कुर्मी विधायक 2015 में 16 थे जबकि इस बार केवल 10 विधायक ही जीते हैं। कुशवाहा विधायकों की संख्या 2015 में 20 थी तो वहीं 2020 में 16 विधायक ही जीत पाये हैं। वहीं पर ब्राहा्णों ओर वैश्यों विधायकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। 2015 में ब्राहा्ण विधायकों की संख्या 10 थी तो वहीं 2020 में यह संख्या 12 हो गयी है। वैष विधायक 2015 में 13 थे अब यह संख्या 22 हो गयी है। विधानसभा चुनाव 2020 में इस विधानसभा चुनाव में जाति का बंधन के साथ एजेंडे में मुद्दे ही प्रमुख रूप से शामिल रहे। वोट भी लोगों ने मुद्दों के आधार पर ही दिया। एनडीए जहां अपने 15 साल के कामों को गिनाता रहा। वहीं महागठबंधन ने बेरोजगारी को प्रमुख मुद्दा माना। हालांकि प्रत्याशियों के चयन में सीटों के आधार पर जहां जिस जाति की बहुलता थी वहां उसके आधार पर टिकट दिए गए लेकिन वोट का रुझान देखने से स्पष्ट हो रहा है कि सोशल इंजीनियरिंग और जाति बंधन का फैैक्टर कुछ खास नहीं रहा। उपेंद्र कुशवाहा विशुद्ध रूप से जाति आधारित राजनीति को केंद्र बिंदु बनाकर मैदान में उतरे। उन्होंने 104 में से 48 कुशवाहा को टिकट दिया लेकिन सीटों पर उम्मीद के अनुसार कामयाबी नहीं मिली। वही हाल पप्पू यादव के जन अधिकार पार्टी का भी रहा। हालांकि सीमांचल इलाके में जहां मुस्लिम बहुल सीटे हैं वहां असदुद्दिन ओवैसी प्रभाव डालकर अपनी जाति के हिसाब से वोट पाने में कुछ हद तक कामयाब रहे। लेकिन वह भी आंशिक रहा। मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार के रूप में खुद को प्रचारित करने वाली पुष्पम प्रिया ने जाति की राजनीति से खुद को दूर बताया लेकिन उनका हाल सबसे बुरा रहा। 1990 में चुनावों में लालू प्रसाद ने मुस्लिम और यादवों को वोट बैंक के रूप में साधा और इसके दम पर 15 साल शासन किया। इन दोनों जातियों को अच्छा प्रतिनिधित्व भी दिया। करीब 11 प्रतिशत यादव और 12.5 प्रतिशत मुस्लिम वोट बैंक को एकजुट करने में लालू कामयाब रहे थे। 2005 में नीतीश कुमार ने मुस्लिमों का विश्वास जीतकर इस समीकरण को ध्वस्त कर दिया था। इसके बाद राजद की स्थिति ठीक नहीं रही। सभी पार्टियों ने वोट बैंक के हिसाब से कुर्मी और कुशवाहा को तवज्जो देना शुरू किया और 1980 के बाद से विधानसभा में चुने गए प्रतिनिधियों के रूप में लगातार इनकी ताकत बढ़ती गई। 2010 में 18-18 सीटों पर कुर्मी जीते वहीं 2015 में 16 और 20 सीटों पर जीते। इस चुनाव में भी इस वर्ग का अच्छा प्रभाव रहा। सभी पार्टियों ने प्रत्याशी के रूप में मौका दिया और सफलता भी मिली।1952 से 1977 तक कायस्थ समाज के जनप्रतिनिधियों की संख्या अच्छी रही। लेकिन उसके बाद इसमें लगातार गिरावट हुई। जो संख्या दहाई में हुआ करती थी वह अब इकाई में आ गई है। शुरुआती दशक में ये दोनों जातियां राजनीति का केंद्र बिंदु रहीं। 1977 के छात्र आंदोलन और 1990 के मंडल आंदोलन के उभार के बाद इन दोनों जातियों का प्रतिनिधित्व घटता चला गया। लेकिन पिछले चुनाव की तुलना में इस बार के चुनाव में ब्राहा्णों और वैश्यों ने अपनी ताकत बढ़ाई है।
